Monday, May 23, 2011

याद रहेगा लखनऊ-प्रवास

इन दिनों अकसर तो घर से निकलना हो नहीं पाता। कोई पचीस बरस तक नंदन से जुड़े रहने के दौरान घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक आना-जाना...फऱीदाबाद में यातायात की जो स्थिति है, उसमें यह काफी थका देने वाला अनुभव था। घर पर ही सुबह से देर रात तक पढ़ना और लिखना, लिखना और पढ़ना, बस यही अब अधिक रुचता है। पर इस बार लखनऊ गया। बचपन में याद पड़ता है, लखनऊ की एक झलक देखी थी कृष्ण भाईसाहब के साथ। बहुत लंबे अरसे बाद इस बार फिर लखनऊ का दीदार।

अवसर पारिवारिक ही था और मैं उसे हरगिज छोड़ नहीं पा रहा था। बड़े भाईसाहब, कृष्ण भाईसाहब के विवाह की पचासवीं वर्षगाँठ। बड़े भैया और भाभी ने जब मैं छोटा था, तभी से माता-पिता की तरह हमारी चिंता की। अब वे अस्वस्थ रहते हैं, फिर भी पूरे घर की चिंता करते हैं। उनके लिए एक छोटी सी कविता भी लिखी, जिसमें भाईसाहब के कुछ विलक्षण गुणों की चर्चा के साथ ही स्मृतियों की मीठी खुशबू है।

कृष्ण भाईसाहब रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर थे। कविता में उसका जिक्र है। स्टेशन पर कोई छोटा हो या बड़ा, हर कोई उन्हें प्यार से टाटा बाबू कहकर पुकारता था। टाटा बाबू क्यों प्यार से कहते थे लोग उन्हें, नहीं जानता। पर इतना तय है कि उनके नाम से शायद ही कोई उन्हें पुकारता था। सबके वे टाटा बाबू ही थे।

फिर भाईसाहब की साइकिल का जिक्र भी जरूरी है। नौकरी के दौरान शिफ्टें बदलती थीं। स्टेशन से घर का रास्ता सूना और सन्नाटे से भरा था, पर टाटा बाबू ने रात-बिरात साइकिल के पहियों पर दौड़ते हुए ही नौकरी का अपना कार्यकाल पूरा किया। कितनी तकलीफें उन्होंने सहीं, कितना संघर्ष किया, बताना मुश्किल है। हम भाइयों की तरक्की के लिए उन्होंने अपने शानदार कैरियर को छोडकर पिताजी का व्यापार में हाथ बँटाना पसंद किया और फिर ए.एस.एम. हुए। वह सब कुछ आज याद आ रहा है। इस कविता में भी है, पर शायद बहुत साफ नहीं। बहुत अच्छे ढंग से शायद मैं कह भी नहीं सका। तो भी जो कुछ भी है, हाजिर है--

जिएँ हमारे कृष्णन भैया

हम छोटे थे, तभी बड़े थे, खूब बड़े थे कृष्णन भैया,
बड़े हुए हम, तब भी तो हैं बड़े-बड़े से कृष्णन भैया।
लगता वो हरदम ऐसे थे, हरदम प्यारे कृष्णन भैया,
प्यारे तो सब ही हैं, लेकिन प्यार से प्यारे कृष्णन भैया।
कृष्णा भाभी मिलीं तो हो गए कृष्णन भैया गंगासागर,
प्यार छलकता छल-छल, छल-छल, चाहे भर लो जितनी गागर।

सीटू भैया के डैडी हैं, इट्टेसन पर टाटा बाबू,
चोगा लगा कान से, झटपट सभी गाड़ियाँ होतीं काबू।
पूछें आती सभी गाड़ियाँ, अब हम आएँ टाटा बाबू,
आओ, आकर जल्दी जाओ—हाथ हिलाएँ टाटा बाबू।

यों कर ली जब पूरी डूटी, नहीं गए शिमला या ऊटी,
बोले, लखनपुरी चलते हैं, वहीं गड़ेगी अपनी खूँटी।
फुर्सत के दिन हैं, पर हर पल राह दिखाएँ कृष्णन भैया,
हर मसले पर सोची-समझी राय बताएँ कृष्णन भैया।
किरकिट हो या राजनीति हो, सब पर जमकर बोलें भैया,
बोल-बोलकर तोलें भैया, तोल-तोलकर बोलें भैया।
आईपीएल के चौके-छक्के, विकेट गिना दें झटपट-झटपट,
मसला घर का हो बाहर का, हल करते बस चटपट-चटपट।
कोई मुश्किल में है घर में, दिया सुनाई भैया का स्वर,
और खबर हो कोई अच्छी, भैया मन को कर देंगे तर।
भाइया जी अब नहीं, तो अपने भाइया जी हैं कृष्णन भैया,
प्रेम बरसता आँखों से ज्यों माता जी हैं कृष्णन भैया।

छूट गई अब साइकिल, पैदल भी चल लें तो बड़ी बात है,
इसी साइकिल ने टेसन तक सबको दे दी मगर मात है।
रात हुई कितनी भी लेकिन साइकिल उनकी दौड़ी जाती,
टाटा बाबू के संग जैसे ड्यूटी वह भी खूब निभाती।
चलती जाती, चलती जाती मेरे सपनों में वह साइकिल,
टाटा बाबू नहीं थकेंगे, नहीं थकेगी उनकी साइकिल।
बैठ इसी पर टाटा बाबू ने चलवा दीं ट्रेनें सारी,
बैठ इसी पर टाटा बाबू ने पूरी यह धरा हिला दी।

देसी ठाट यही भैया का, हमको सबसे ज्यादा भाता,
आ पाएँ या नहीं, मगर लखनऊ सभी को खूब बुलाता।
भाइया जी के प्यारे बेटे, हम सबके वे प्यारे भाई,
सब बच्चों के प्यारे डैडी, जिनसे मिलना है सुखदायी।
अमर रहे यह अकथ कहानी, स्वस्थ रहें अब भैया अपने,
खूब हँसें और हँसी लुटाएँ, उन पर वारी सारे सपने।
जैसी मीठी ममता उनमें, वैसी नहीं किसी में भाई,
भैया तो हैं भाभी जैसे, भाभी जैसे कृष्णन भाई।
प्यार बाँटते इसी तरह बस जिएँ हमारे भैया-भाभी,
बने रहें इस पूरे घर के आँख के तारे भैया-भाभी।
प्र.म., 17.5.2011

भाईसाहब के इसी ममत्वमय व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि इस कार्यक्रम में शामिल हर शख्स की आँखों में इस समय खुशी और प्यार भरे आँसू थे और साथ ही मीठी मुसकान भी थी।

फिर इस लखनऊ प्रवास का एक बड़ा सुख यह रहा कि विनायक जी, जाकिर अली रजनीश और सुरेंद्र विक्रम से अच्छी और यादगार मुलाकातें हुईं। संजीव जायसवाल संजय से फोन पर लंबी बात हुई। वे इस समय लखनऊ नहीं, बनारस में थे। और जब उऩ्होंने कहा कि मनु जी, अगर मुझे पता होता कि आप आ रहे हैं तो मैं बनारस का अपना कार्यक्रम छोड़ दता, तो मेरी आँखें सजल हो गईं। इतने प्यारे दोस्त सबको कहाँ मिलते हैं।

मन है कि मित्रों से हुई मुलाकातों के बारे में भी लिखूँ। पर अब अगली बार में।
सस्नेह, प्र.म.

Tuesday, April 6, 2010

Samwaad Jaari Rahega

yeh hai meri khud se aur aapse samwad karne ki baichaini aur ek nayi shuruaat.